by Rizvi Amir Abbas Syed
एक अदृश्य सी डोर है
जो आज मुझे दीपक ढेंगले से जोड़ रही है
उसकी काल कोठरी
उसके क़लम
उसकी कवितायेँ
उसके उज्जवल भारत के सपने
सब देख रहा हूँ
दीपक चमक रहा है
लाख कोशिशों के बाद भी
सरकार इस दीपक की टिमटिमाती लौ से
मात खाती चली जा रही है
अंधकार का अजगर इसकी लौ को निगल नहीं पा रहा है
हाँ दीपक स्वाधीनता के गीत गा रहा
युगों युगों से जिन पैरों पर ब्रह्मा का अस्तित्व खड़ा था
वो डगमगाने लगा है
अब दीपक स्वयं की ज्योति को पहचानने लगा है
अदृश्य डोर से हिम्मत बांधने लगा है
अपनी हिम्मत, मेरी हिम्मत
हम सब की हिम्मत
अब तन-रुपी पहनावा
या नक्सलवाद का झूठा इलज़ाम कोई अस्तित्व नहीं रखता
मैं सत्य पर हूँ
अब मुझे डर नहीं लगता